भाषा एवं साहित्य >> साहित्य देवता साहित्य देवतामाखनलाल चतुर्वेदी
|
8 पाठकों को प्रिय 213 पाठक हैं |
प्रस्तुत है साहित्य का स्वरूप....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी अद्भुत ऊँचाई, विलक्षणता और सारगर्भिता के कारण यह उन सभी
गद्य-काव्यों से भिन्न है, जिन्हें हम आज तक देखने के आदी रहे हैं। भारतीय
भाषाओं में तो ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है ही नहीं, विश्व-साहित्य में भी
एशिया-माइनर के स्व. कवि ‘खलील जिब्रान’ के कुछ
ग्रन्थों तथा
जर्मन कवि ‘नीत्से’ की ‘दस स्पेक
जरथ्रुस’ को
छोड़कर इसकी तुलना और किसी पुस्तक से नहीं की जा सकती।
नाम से यह ग्रन्थ साहित्य की आलोचना जैसा दीख पड़ेगा और इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य के स्वरूप के सम्बन्ध में इसमें कितनी ही सूक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं।
किन्तु, इतना ही सबकुछ अथवा अधिकांश भी नहीं है। साहित्य की आलोचना, कला का मूयांकन, जनता, समाज और राजनीति, रूप, आसक्ति, प्रेम और स्त्री, आध्यात्मिक तृषा, पौरुष और बलिदान तथा भक्ति और मुक्ति रूपी विविध नक्षत्रों से संचित आकाश में यह कोई चन्द्रमा है जो अपनी कविता की किरण फैला रहा है।
इसके भीतर जितने भी विषयों का संकेत है उन्हें देखने वालों की दृष्टि कवि की दृष्टि है, उन पर सोचने वाले चिन्तक का ह्रदय कवि का ह्रदय है तथा उनके व्याख्याता, मनीषी की भाषा लक्षणा, व्यंजना और अलंकारों से युक्त कवि की भाषा है।
नाम से यह ग्रन्थ साहित्य की आलोचना जैसा दीख पड़ेगा और इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य के स्वरूप के सम्बन्ध में इसमें कितनी ही सूक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं।
किन्तु, इतना ही सबकुछ अथवा अधिकांश भी नहीं है। साहित्य की आलोचना, कला का मूयांकन, जनता, समाज और राजनीति, रूप, आसक्ति, प्रेम और स्त्री, आध्यात्मिक तृषा, पौरुष और बलिदान तथा भक्ति और मुक्ति रूपी विविध नक्षत्रों से संचित आकाश में यह कोई चन्द्रमा है जो अपनी कविता की किरण फैला रहा है।
इसके भीतर जितने भी विषयों का संकेत है उन्हें देखने वालों की दृष्टि कवि की दृष्टि है, उन पर सोचने वाले चिन्तक का ह्रदय कवि का ह्रदय है तथा उनके व्याख्याता, मनीषी की भाषा लक्षणा, व्यंजना और अलंकारों से युक्त कवि की भाषा है।
भूमिका
अपनी इस बोली का परिचय मैं कौन-सी भूमिका लिखकर दूँ ? मेरा इन पृष्ठों में
किया हुआ सारा प्रयत्न ही, एक भूमिका-मात्र है। कोई भाग्यशाली, इस भूमिका
के आगे, प्रकृत वस्तु को लिखकर, मेरे इस अधूरे प्रयत्न को पूरा करेगा; इसी
आशा से, मैं भारती के मन्दिर में, यह अधूरा आर्ध्य चढ़ाने का साहस कर रहा
हूँ।
माखनलाल चतुर्वेदी
साहित्य- देवता
चिन्तक, वक्ता और गद्यकार माखनलालजी के तीनों रूप उनके अन्तर्वासी कवि के
ही विभिन्न रूप हैं। कवित्त उनका अपना स्वरूप है। और वही उनकी आत्मा का
निवास-स्थल है। आत्मा उनकी चन्द्रमण्डल में रहती है, और वह जहाँ कहीं भी
जाते हैं, चाँदनी की कोमलता उनके साथ जाती है। उनका गर्जन रंगीन घटाओं से
तथा उनकी चीख फूलों के हृदय से निकलती है। जब वह सोचते होते हैं तब उनके
सामने सारी कुरुपताओं पर चाँदनी के चूर्ण की वृष्टि होती है, और जब वह
बोलने लगते हैं तब भी उन पर कविता की सतरंगी चादर तनी होती है। किसी भी
वस्तु के तद्गत रूप का तटस्थ होकर वर्णन करना उनके लिए एक अनहोनी-सी बात
है, अतः वह वर्ण्य वस्तु के हृदय में बैठकर उसकी उन विलक्षणताओं का रहस्य
खोलते हैं जो प्रायः उनकी अपनी सहानुभूति से युक्त होती हैं।
प्रस्तुत पुस्तक उनके अस्फुट निबन्धों का संग्रह है। अगर हिन्दी में निस्सार प्रलापों का वाचक होकर ‘गद्य-काव्य’ शब्द अपने चमत्कारों से हीन न हो गया होता, तो हम इसको उच्च कोटि का गद्य-काव्य कहते। किन्तु गद्य-काव्य के नाम पर हमारी भाषा में जैसी असमर्थ रचनाएं चल रही हैं उन्हें देखते हुए इसको गद्य-काव्य कहना इसके अपमान के समान प्रतीत होता है। अपनी अद्भुत ऊँचाई, विलक्षणता और सारगर्भिता के कारण यह उन सभी गद्य-काव्यों से भिन्न है, जिन्हें हम आज तक देखने के आदी रहे हैं। भारतीय भाषाओं में तो ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है ही नहीं, विश्व-साहित्य में भी एशिया-माइनर के स्व. कवि ‘खलील जिब्रान’ के कुछ ग्रन्थों तथा जर्मन कवि ‘नीत्से’ की ‘दस स्पेक जरथुस्त्र’ को छोड़ इसकी तुलना और किसी पुस्तक से नहीं की जा सकती। नाम से यह ग्रन्थ साहित्य की आलोचना जैसा दीख पड़ेगा और इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य के स्वरूप के सम्बन्ध में इसमें कितनी ही सूक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। किन्तु, इतना ही सब कुछ अथवा अधिकांश भी नहीं है।
साहित्य की आलोचना, कला का मूल्यांकन, जनता, समाज और राजनीति, रूप, आसक्ति, प्रेम और स्त्री, आध्यात्मिक तृषा, पौरुष और बलिदान तथा भक्ति और मुक्ति रूपी विविध नक्षत्रों से संचित आकाश में यह कोई चन्द्रमा है जो अपनी कविता की किरण फैला रहा है। इसके भीतर जितने भी विषयों का संकेत है उन्हें देखने वालों की दृष्टि कवि की दृष्टि है, उन पर सोचनेवाले चिन्तक का हृदय कवि का हृदय है तथा उनके व्याख्याता मनीषी की भाषा लक्षणा, व्यंजना और अलंकारों से युक्त कवि की भाषा है। माखनलालजी की कविताओं की तरह उनके इस गद्य ग्रन्थ में भी प्रेम की मादकता और दहन की ज्वाला के बीच द्वन्द्व है। यहाँ भी वह अनेक असंगतियों, कुरूपताओं के बीच से जीवन के सामंजस्यपूर्ण रसपूर्ण की सृष्टि करने में आनन्दमयता के साथ व्यस्त हैं। साहित्य और कला के सम्बन्ध में जहाँ विचार है वहाँ साहित्य और कला दोनों ही वर्तमान जीवन के प्रसंग में लाकर जाँचे गये हैं।
किन्तु इस समकालीनता की कसौटी पर कसी जाने के कारण कला के स्वरूप निर्देश में कोई अन्याय नहीं हुआ है क्योंकि खुद व्याख्याता ही अपने समय के उस अंश में रहता है जो सभी समयों के साथ है। जैसे शरीर नश्वर है, वैसे ही सभी युग नाशवान हैं। किन्तु जिस प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर भी इस जीवन की वायु अगले जीवन में जा बसती है वैसे ही प्रत्येक युग मिटकर भी अनन्त समय के साथ रहता है। काल की सनातन आत्मा युग-विशेष की घटनाओं से बिलकुल निर्लिप्त नहीं रह पाती, प्रत्युत उस पर प्रत्येक युग का ताप अंकित हो जाता है। साहित्य और कला को माखनलालजी मनुष्य के उस मनोमय रूप का व्याख्याता मानते हैं जिसके इंगित पर उसका स्थूल शरीर काम करता है। जो कुछ हम देख रहे हैं वह विज्ञान का विषय है, इस दृश्य के पीछे जो अदृश्य भूमि है कला वहीं की विहारिणी है। अतएव साहित्य और कला का धर्म जीवन का अनुमान नहीं प्रत्युत नयन होना चाहिए।
‘स्वप्नों को पकड़ने का पथ अन्तरतर के स्वप्न देश ही में से है।’
एक बार किसी अभिभाषण में माखनलालजी ने कहा था—‘‘जहाँ तक ब्रह्मा की सृष्टि है कला वहीं तक सीमित नहीं रहती, उससे आगे भी जाती है।’’ इस पुस्तक में कला के इस दृश्यातीत रूप में अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। लिखने की सुखी इच्छा को दफनाने के दिन को ही समालोचन के मंगल प्रभात बनने का गौरव प्राप्त है। इस वाक्य में आलोचना के उस रूप की ओर संकेत है जो दरअसल कवि का रूप है और सर्जना के क्षेत्र में जिसका स्थान मुख्य नहीं, प्रत्युत गौण होता है। किन्तु इस पुस्तक में की गई साहित्य विषयक आलोचनाएँ उससे भिन्न चीज हैं। अनेक लक्षणात्मक शीर्षकों के अन्तर्गत उन्होंने जो कुछ भी विचार किया है वह सबका सब साहित्य के स्वरूप, उसकी आत्मा, उसकी आवश्यकता तथा समकालीनता की पृष्ठभूमि पर उसके विकास के ही सम्बन्ध में है। और इस विवेचना के बीच उन्होने कोई मत निर्धारण अथवा पक्ष सिद्धि नहीं की है, बल्कि इन विषयों को निमित्त मानकर गद्य में स्वतन्त्र कविताएँ रची हैं।
इस पुस्तक के भीतर आलोचना को निमित्त मानकतर गद्य में स्वतन्त्र कविताएँ रची हैं। इस पुस्तक के भीतर आलोचना नहीं, स्वतन्त्र काव्य का रस है। यह पण्डित का तर्क नहीं, कवि की वाणी का प्रसाद है। जिस प्रकार माखनलालजी की कविता और वार्ताएँ रसपूर्ण, किन्तु धुँधली हुआ करती हैं उसी प्रकार इसके भी सभी अध्याय धुँधले तथा रहस्यपूर्ण हैं। इसमें अधिकांश प्रकरण तो ऐसे हैं जिनके साथ शीर्षकों का कोई मेल नहीं दीखता, लेकिन शीर्षकों को बराबर ध्यान में रखे बिना कथा भी समझ में नहीं आ सकती क्योंकि शीर्षक वही वह कुंजी है जिससे जगह-जगह रहस्य का द्वार उन्मुक्त होता है। इसमें जिन द्रव्यों का अवलंब लेकर काव्य की सृष्टि की गई है वे वैज्ञानिक विवेचन के भी उपकरण हो सकते थे। किन्तु वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने के बाद इसके आकार और विलक्षणता—दोनों ही में कमी आ जाती, और तब इसका स्थान उन अनेक पुस्तकों के बीच होता, जो आये दिन साहित्य पर स्वतन्त्र चिन्तन लेकर निकलती ही रहती है। विशेषता इसकी यह है कि इसमें साहित्य को ही पुरुष मानकर उस पर कवि की कल्पना दौड़ाई गई है।
साहित्य के सम्बन्ध में आलोचक और कवि आलोचक दोनों ही श्रेणियों के लोग बहुत बार अपना मत प्रकट कर चुके हैं। किन्तु साहित्य के सम्बन्ध में शुद्ध कवि की वाणी पहले-पहल इसी में प्रस्फुटित हुई है। हमारे जानते, इस पुस्तक की अस्पष्टता की सामान्यता से सन्तोष नहीं है। वह प्रत्येक विचार तथा प्रत्येक वस्तु के उस रूप पर जोर देता है जो तत्सम्बन्धी जनप्रसिद्धि से काफी दूर है। ‘जीवन का प्रश्नहिह्न—स्त्री’ इस शीर्षक के अन्तर्गत प्रेम पर विचार करते हुए लेखक ने कहा है—‘यह प्रेम है ? मानव की बुरी-से-बुरी भावना को अच्छे-से-अच्छा नाम देने के लिए मानव निर्मित कोष में शब्दों का टोटा क्यों पड़ने लगा ?’’ और यह इसलिए कि सौन्दर्य को मोह और दुर्बलता समझता है। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह इसी सौन्दर्य को अपने निमित्त पकड़ रखने की कोशिश कहता है।
कल्पक के मन की दुनिया में एक ऐसी सीमा है जिसके परे की वस्तु, वाणी के बन्धन में ठीक नहीं आ सकती; जिसकी अभिव्यक्ति टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचकर की जाती हैं, जो जनप्रसिद्ध से युक्त प्रतीकों के अभाव में कथित होकर भी अकथित ही रह जाती है। प्रत्येक को अपने लिए कुछ खास प्रतीकों का निर्माण करना पड़ता है। सतपुडा, नर्मदा, तरुणाई और रसवंती माखनलालजी के कुछ ऐसे प्रतीक हैं जिनमें कदम-कदम पर पाठक को नये प्रतीकों की कल्पना करनी पड़ती है। अगर वह ऐसा न करे तो अर्थों का एक पूरा भंडार उसके सामने से अछूता ही निकल जाता है।
केवल पाठक ही कठिनाई में पड़ा हो, सो बात नहीं है। स्थान-स्थान पर यह भी मालूम होता है कि लेखक को सर्जना की असीम वेदना में से होकर गुजरना पड़ा है। इस पुस्तक में माखनलालजी ने कितनी ही सूक्ष्म अनुभूतियों को सूक्ष्मता के साथ व्यक्त किया है और ऐसा करने में जो कठिनाइयाँ हैं उन्हें खूब ही झेला है। ऐसा जान पड़ता है कि मन के अशरीरी विचार कलम पर आने के लिए किसी वाहन की खोज में लेखक के आसपास नजर डाल रहे हों तथा दूसरों के द्वारा व्यवहार में लाये गये वाहन उन्हें पसन्द न आते हों। ऐसी बेबसी में उन्हें जो भी नये वाहन मिल जाते हैं उन्हीं पर चढ़कर वे चल देते हैं—ऐसे वाहन जिन्हें कविता में भावों की कहानी करते हुए पाठकों ने कभी नहीं देखा है। ऐसे वाहनों में सतपुड़ा, नर्मदा, छलकन गगरी, पत्थर और टांकी के साथ काशीप्रसाद जायसवाल, संत निहालसिंह और राहुल सांकृत्यायन के भी नाम हैं, जिन्हें माखनलालजी ने अपनी प्रस्तुत रचना में प्रतीक बनाकर पेश किया है।
ये है साहित्य-देवता के रूप और आत्मा की ओर कुछ संकेत। प्रत्येक साहित्य-प्रेमी पाठक को इसके दो-चार परायण अवश्य कर लेने चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक उनके अस्फुट निबन्धों का संग्रह है। अगर हिन्दी में निस्सार प्रलापों का वाचक होकर ‘गद्य-काव्य’ शब्द अपने चमत्कारों से हीन न हो गया होता, तो हम इसको उच्च कोटि का गद्य-काव्य कहते। किन्तु गद्य-काव्य के नाम पर हमारी भाषा में जैसी असमर्थ रचनाएं चल रही हैं उन्हें देखते हुए इसको गद्य-काव्य कहना इसके अपमान के समान प्रतीत होता है। अपनी अद्भुत ऊँचाई, विलक्षणता और सारगर्भिता के कारण यह उन सभी गद्य-काव्यों से भिन्न है, जिन्हें हम आज तक देखने के आदी रहे हैं। भारतीय भाषाओं में तो ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है ही नहीं, विश्व-साहित्य में भी एशिया-माइनर के स्व. कवि ‘खलील जिब्रान’ के कुछ ग्रन्थों तथा जर्मन कवि ‘नीत्से’ की ‘दस स्पेक जरथुस्त्र’ को छोड़ इसकी तुलना और किसी पुस्तक से नहीं की जा सकती। नाम से यह ग्रन्थ साहित्य की आलोचना जैसा दीख पड़ेगा और इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य के स्वरूप के सम्बन्ध में इसमें कितनी ही सूक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। किन्तु, इतना ही सब कुछ अथवा अधिकांश भी नहीं है।
साहित्य की आलोचना, कला का मूल्यांकन, जनता, समाज और राजनीति, रूप, आसक्ति, प्रेम और स्त्री, आध्यात्मिक तृषा, पौरुष और बलिदान तथा भक्ति और मुक्ति रूपी विविध नक्षत्रों से संचित आकाश में यह कोई चन्द्रमा है जो अपनी कविता की किरण फैला रहा है। इसके भीतर जितने भी विषयों का संकेत है उन्हें देखने वालों की दृष्टि कवि की दृष्टि है, उन पर सोचनेवाले चिन्तक का हृदय कवि का हृदय है तथा उनके व्याख्याता मनीषी की भाषा लक्षणा, व्यंजना और अलंकारों से युक्त कवि की भाषा है। माखनलालजी की कविताओं की तरह उनके इस गद्य ग्रन्थ में भी प्रेम की मादकता और दहन की ज्वाला के बीच द्वन्द्व है। यहाँ भी वह अनेक असंगतियों, कुरूपताओं के बीच से जीवन के सामंजस्यपूर्ण रसपूर्ण की सृष्टि करने में आनन्दमयता के साथ व्यस्त हैं। साहित्य और कला के सम्बन्ध में जहाँ विचार है वहाँ साहित्य और कला दोनों ही वर्तमान जीवन के प्रसंग में लाकर जाँचे गये हैं।
किन्तु इस समकालीनता की कसौटी पर कसी जाने के कारण कला के स्वरूप निर्देश में कोई अन्याय नहीं हुआ है क्योंकि खुद व्याख्याता ही अपने समय के उस अंश में रहता है जो सभी समयों के साथ है। जैसे शरीर नश्वर है, वैसे ही सभी युग नाशवान हैं। किन्तु जिस प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर भी इस जीवन की वायु अगले जीवन में जा बसती है वैसे ही प्रत्येक युग मिटकर भी अनन्त समय के साथ रहता है। काल की सनातन आत्मा युग-विशेष की घटनाओं से बिलकुल निर्लिप्त नहीं रह पाती, प्रत्युत उस पर प्रत्येक युग का ताप अंकित हो जाता है। साहित्य और कला को माखनलालजी मनुष्य के उस मनोमय रूप का व्याख्याता मानते हैं जिसके इंगित पर उसका स्थूल शरीर काम करता है। जो कुछ हम देख रहे हैं वह विज्ञान का विषय है, इस दृश्य के पीछे जो अदृश्य भूमि है कला वहीं की विहारिणी है। अतएव साहित्य और कला का धर्म जीवन का अनुमान नहीं प्रत्युत नयन होना चाहिए।
‘स्वप्नों को पकड़ने का पथ अन्तरतर के स्वप्न देश ही में से है।’
एक बार किसी अभिभाषण में माखनलालजी ने कहा था—‘‘जहाँ तक ब्रह्मा की सृष्टि है कला वहीं तक सीमित नहीं रहती, उससे आगे भी जाती है।’’ इस पुस्तक में कला के इस दृश्यातीत रूप में अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। लिखने की सुखी इच्छा को दफनाने के दिन को ही समालोचन के मंगल प्रभात बनने का गौरव प्राप्त है। इस वाक्य में आलोचना के उस रूप की ओर संकेत है जो दरअसल कवि का रूप है और सर्जना के क्षेत्र में जिसका स्थान मुख्य नहीं, प्रत्युत गौण होता है। किन्तु इस पुस्तक में की गई साहित्य विषयक आलोचनाएँ उससे भिन्न चीज हैं। अनेक लक्षणात्मक शीर्षकों के अन्तर्गत उन्होंने जो कुछ भी विचार किया है वह सबका सब साहित्य के स्वरूप, उसकी आत्मा, उसकी आवश्यकता तथा समकालीनता की पृष्ठभूमि पर उसके विकास के ही सम्बन्ध में है। और इस विवेचना के बीच उन्होने कोई मत निर्धारण अथवा पक्ष सिद्धि नहीं की है, बल्कि इन विषयों को निमित्त मानकर गद्य में स्वतन्त्र कविताएँ रची हैं।
इस पुस्तक के भीतर आलोचना को निमित्त मानकतर गद्य में स्वतन्त्र कविताएँ रची हैं। इस पुस्तक के भीतर आलोचना नहीं, स्वतन्त्र काव्य का रस है। यह पण्डित का तर्क नहीं, कवि की वाणी का प्रसाद है। जिस प्रकार माखनलालजी की कविता और वार्ताएँ रसपूर्ण, किन्तु धुँधली हुआ करती हैं उसी प्रकार इसके भी सभी अध्याय धुँधले तथा रहस्यपूर्ण हैं। इसमें अधिकांश प्रकरण तो ऐसे हैं जिनके साथ शीर्षकों का कोई मेल नहीं दीखता, लेकिन शीर्षकों को बराबर ध्यान में रखे बिना कथा भी समझ में नहीं आ सकती क्योंकि शीर्षक वही वह कुंजी है जिससे जगह-जगह रहस्य का द्वार उन्मुक्त होता है। इसमें जिन द्रव्यों का अवलंब लेकर काव्य की सृष्टि की गई है वे वैज्ञानिक विवेचन के भी उपकरण हो सकते थे। किन्तु वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने के बाद इसके आकार और विलक्षणता—दोनों ही में कमी आ जाती, और तब इसका स्थान उन अनेक पुस्तकों के बीच होता, जो आये दिन साहित्य पर स्वतन्त्र चिन्तन लेकर निकलती ही रहती है। विशेषता इसकी यह है कि इसमें साहित्य को ही पुरुष मानकर उस पर कवि की कल्पना दौड़ाई गई है।
साहित्य के सम्बन्ध में आलोचक और कवि आलोचक दोनों ही श्रेणियों के लोग बहुत बार अपना मत प्रकट कर चुके हैं। किन्तु साहित्य के सम्बन्ध में शुद्ध कवि की वाणी पहले-पहल इसी में प्रस्फुटित हुई है। हमारे जानते, इस पुस्तक की अस्पष्टता की सामान्यता से सन्तोष नहीं है। वह प्रत्येक विचार तथा प्रत्येक वस्तु के उस रूप पर जोर देता है जो तत्सम्बन्धी जनप्रसिद्धि से काफी दूर है। ‘जीवन का प्रश्नहिह्न—स्त्री’ इस शीर्षक के अन्तर्गत प्रेम पर विचार करते हुए लेखक ने कहा है—‘यह प्रेम है ? मानव की बुरी-से-बुरी भावना को अच्छे-से-अच्छा नाम देने के लिए मानव निर्मित कोष में शब्दों का टोटा क्यों पड़ने लगा ?’’ और यह इसलिए कि सौन्दर्य को मोह और दुर्बलता समझता है। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह इसी सौन्दर्य को अपने निमित्त पकड़ रखने की कोशिश कहता है।
कल्पक के मन की दुनिया में एक ऐसी सीमा है जिसके परे की वस्तु, वाणी के बन्धन में ठीक नहीं आ सकती; जिसकी अभिव्यक्ति टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचकर की जाती हैं, जो जनप्रसिद्ध से युक्त प्रतीकों के अभाव में कथित होकर भी अकथित ही रह जाती है। प्रत्येक को अपने लिए कुछ खास प्रतीकों का निर्माण करना पड़ता है। सतपुडा, नर्मदा, तरुणाई और रसवंती माखनलालजी के कुछ ऐसे प्रतीक हैं जिनमें कदम-कदम पर पाठक को नये प्रतीकों की कल्पना करनी पड़ती है। अगर वह ऐसा न करे तो अर्थों का एक पूरा भंडार उसके सामने से अछूता ही निकल जाता है।
केवल पाठक ही कठिनाई में पड़ा हो, सो बात नहीं है। स्थान-स्थान पर यह भी मालूम होता है कि लेखक को सर्जना की असीम वेदना में से होकर गुजरना पड़ा है। इस पुस्तक में माखनलालजी ने कितनी ही सूक्ष्म अनुभूतियों को सूक्ष्मता के साथ व्यक्त किया है और ऐसा करने में जो कठिनाइयाँ हैं उन्हें खूब ही झेला है। ऐसा जान पड़ता है कि मन के अशरीरी विचार कलम पर आने के लिए किसी वाहन की खोज में लेखक के आसपास नजर डाल रहे हों तथा दूसरों के द्वारा व्यवहार में लाये गये वाहन उन्हें पसन्द न आते हों। ऐसी बेबसी में उन्हें जो भी नये वाहन मिल जाते हैं उन्हीं पर चढ़कर वे चल देते हैं—ऐसे वाहन जिन्हें कविता में भावों की कहानी करते हुए पाठकों ने कभी नहीं देखा है। ऐसे वाहनों में सतपुड़ा, नर्मदा, छलकन गगरी, पत्थर और टांकी के साथ काशीप्रसाद जायसवाल, संत निहालसिंह और राहुल सांकृत्यायन के भी नाम हैं, जिन्हें माखनलालजी ने अपनी प्रस्तुत रचना में प्रतीक बनाकर पेश किया है।
ये है साहित्य-देवता के रूप और आत्मा की ओर कुछ संकेत। प्रत्येक साहित्य-प्रेमी पाठक को इसके दो-चार परायण अवश्य कर लेने चाहिए।
-दिनकर
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book